भारत विभाजन एक काला अध्याय -- विभाजन विभीषिका के याद के साथ ही कट्टरवाद से निबटने का भी हो संकल्प दिवस

 विभाजन विभीषिका दिवस के आयोजन की सार्थकता कैसे होगी सिद्ध•• जिहादी सोच पर हो करारा प्रहार••विभाजन विभीषिका दिवस के आयोजन की सार्थकता तभी है जब सरकार इस्लामिक कट्टरता से डटकर मुकाबला करती हुई दिखेगी

इस लेख के लेखक राजेश आर्य सहारनपुर से निगम पार्षद,वाइस चेयरमैन नगर निगम, जूड़ो-कराटे के चैंपियन व पत्रकार हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति की 75 वीं वर्षगांठ देश बड़े उत्साह के साथ  "आजादी का अमृत महोत्सव" के रूप में मना रहा है ! इस श्रंखला में साल भर से कई प्रकार के सरकारी और गैर सरकारी आयोजन चल रहे हैं! आगामी 15 अगस्त को इन कार्यक्रमों का समापन होना है! इसके पहले 14 अगस्त को सरकार पिछले वर्ष की भांति "विभाजन विभीषिका" स्मरण दिवस, के रूप में मनाने जा रही है! जहां एक और शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थान इस विषय पर कार्यक्रम आयोजित करेंगे, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार इस भीषण त्रासदी पर जगह-जगह  प्रदर्शनीया  लगाने जा रही है! स्वतंत्रता के साथ भारतीय उपमहाद्वीप के खाते में आई यह विभीषिका भारतीय इतिहास की इतनी बड़ी त्रासदी है, कि आज भी पंजाब और बंगाल में बहुत से लोग स्वतंत्रता दिवस पर उल्लास उल्लासित होने के साथ ही विभाजन की विनाशकारी स्मृतियों को भी याद करते हैं।
भारत का विभाजन वह काला अध्याय है , जिसके समकक्ष समूचे इतिहास में रक्तपात के गिने-चुने उदाहरण ही मिलेंगे! यह आयोजन इस भीषण नरसंहार में मिले गहरे दावों पर संवेदना प्रकट करने का अवसर तो है ही, साथ ही उन बिंदुओं पर चिंतन करने का पड़ाव भी है, जो सहिष्णुता की प्रतीक भारत भूमि पर प्रलयकारी नरसंहार का निर्मित बने  ! भारतीय विमर्श में विभाजन के राजनीतिक पहलुओं और जिन्ना. नेहरू सरीखे किरदारों को लेकर सतही  चर्चा तो काफी रही है, परंतु उस अलगाववादी मनोवृति पर खामोशी रही, जो विभाजन के लिए मुख्य रूप से उत्तरदाई थी! बहुत हुआ तो विभाजन को अंग्रेजों की शरारत बता दिया गया, परंतु इस्लामिक कट्टरता और मजहबी  श्रेष्ठता के उस बोध पर पूर्णत: मौन साधे रखा गया, जिसके तहत मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग  "एक व्यक्ति एक वोट"  वाले जनतांत्रिक भारत में रहने को तैयार नहीं था! इसकी मुख्य वजह यही रही , क्योंकि 1946 के प्रांतीय विधानसभा चुनावों में मुस्लिम लीग के विभाजन कारी एजेंडे को लगभग 90% मुस्लिम आबादी का समर्थन मिला था।
जिस प्रकार मानव इतिहास के सबसे बड़े पलायन में डेढ़ से दो करोड़ लोगों को झोकने   वाली वाली और 15 से 20 लाख लोगों को मौत के घाट उतारने वाली विभाजन विभीषिका के इस्लामी कारको पर चुप्पी, बौद्धिक कायरता और बेईमानी को दर्शाती है, उसी प्रकार इस तथ्य को नकारना भी छलावा होगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष बाद इस्लामिक कट्टरता ने फिर एक बार 1947 से पहले वाला उग्र और आक्रमक रूप धारण कर लिया है! केवल और केवल हिंदुओं को चिढ़ाने के लिए गोकशी को लेकर जो दुराग्रह पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिला है! वह 1910 से 1947 के बीच फैजाबाद, बेतिया, पटना, मुजफ्फरनगर, समेत अवध, बिहार, और बंगाल के कई हिस्सों में हुए दंगों की याद दिलाता है ! इसी तरह कोलकाता (1925) अहमदाबाद( 1927) देहरादून (1927) नागपुर (1927) जमालपुर (1936) गया (1939) कानपुर (1939) और तमाम अन्य स्थानों पर मस्जिदों के सामने से हिंदू जुलूस निकलने या संगीत बजाने पर हुए दंगों की पुनरावृति अभी बीते दिनों रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव  शोभायात्राओं पर  हमलो के रूप में देखने को मिली! इन दंगों के अलावा इस्लामिक कट्टरता की सबसे खतरनाक प्रवृत्ति   "गुस्ताखी" के नाम पर हुई हत्याओं के रूप में देखी गई है! कमलेश तिवारी, किशन भरवाड, कन्हैया लाल, और उमेश कोहले, से शुरू होकर प्रवीण नेतारू तक चला! हत्याओं का सिलसिला स्वतंत्रता के पहले पंडित लेख राम, स्वामी श्रद्धानंद, लाला नानक चंद, नाथू राम शर्मा, महाशय राजपाल, भोलानाथ सैन,  हरिदास और सतीश जैसे सिलसिलेवार हत्याओं पर दोहराव है! जिस तरह महाशय राजपाल के हत्यारे इलमुद्दीन का बचाव जिन्ना ने और भोलानाथ सेन के हत्यारों अमीर अहमद और अब्दुल्ला की पैरवी मुस्लिम लीग के दूसरे बड़े नेता फजलुल हक ने की, उसी तरह कमलेश तिवारी के हत्यारों को कानूनी मदद के लिए जमीअत उलेमा है ऐ हिंद खुलकर सामने आया! ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो कन्हैया लाल और उमेश कोहले की हत्या जायज ठहरा रहे हैं।
20- वी शताब्दी के पूर्वार्ध और आज की स्थिति में समानता केवल बढ़ती इस्लामिक कट्टरता के संबंध में नहीं है, बल्कि इस चुनौती के प्रत्युत्तर में उदासीनता भी उसी प्रकार की दिख रही है! दुर्भाग्य से आज का राजनीतिक नेतृत्व भी 1947 से पहले की तरह ही इस कट्टरता को तुष्ट करने का प्रयास करता दिख रहा है! जैसे महात्मा गांधी ने स्वामी श्रद्धानंद के शुद्धि प्रयासों को भड़काऊ बताकर प्रतिक्रिया स्वरूप हत्याओं को औचित्य  प्रदान कर दिया था, वैसे ही नूपुर शर्मा पर कार्रवाई और उनके समर्थन में हुए प्रदर्शनों को माहौल बिगाड़ने वाला बताकर वर्तमान शासन एवं न्यायपालिका भी  इस्लामी कट्टरता के हाथों में खेल रही है! राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का सलमान नदवी जैसे कट्टरपंथी मौलाना के साथ मंच साझा करना भड़की हुई कथित मुस्लिम भावनाओं को तृप्त करने का प्रयास वही पुरानी तुष्टीकरण  की कवायत है, इसका विरोध स्वयं सत्ताधारी दल लंबे समय तक करता रहा है।

 एनआरसी का ठंडे बस्ते में जाना, पीएफआई पर कार्यवाही में अनावश्यक विलंब और देश भर में निशाना बनाकर की जा रही हिंदुओं की हत्याओं पर शीर्ष नेतृत्व की खामोशी जहां जिहादी तत्वों और कट्टरपंथियों का मनोबल बढ़ा रही है, वही राष्ट्रवादियों के लिए यह बड़ा धक्का है! यह अच्छी बात है कि वर्तमान सरकार ने विभाजन विभीषिका की सुध ले कर इसे आधिकारिक आयोजन का रूप दिया, परंतु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है! जिस प्रकार जर्मनी ने यहूदी नरसंहार के बाद नाजी विचारधारा को जनमानस से पूरी तरह उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठाया, उसी तरह इस विभीषिका के मूल कारण जिहादी  कट्टरता का राष्ट्र जीवन के समूल नाश भारतीय राजनीति का प्रमुख ध्येय  होना चाहिए! विभाजन विभीषिका दिवस के आयोजन की सार्थकता तभी है, जब सरकार   "गुस्ताखी" सहित हर प्रकार की इस्लामिक कट्टरता से डटकर मुकाबला करती दिखे! अन्यथा तुष्टिकरण और उदासीनता के परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं , यह विभाजन हमें दिखा चुका है!!

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