भावना मंगलामुखी "किन्नर" की साहित्यिक संघर्ष गाथा


विरेन्द्र चौधरी
 

दोस्तों कहते हैं न कब समय अच्छा आने वाला हो तो हम इधर - उधर देखते हुए भी जहां कहीं भी तीर लगाते हैं, तब भी वह बिल्कुल सही निशाने पर लग जाता है। वहीं जब समय का साथ नहीं मिलता है, तब हम कितना ही एकाग्र और शांतचित्त होकर निशाना लगाएं तो भी हम आखिर निशाना चूक ही जाते हैं। आजकल मुझे भी लगता है समय बड़ा बलवान है। मेरी एक रचना मेरे जीवन में भी फलीभूत होने का एहसास करवा रही है। 

दोस्तों मेरे अंतर्मन में लेखन का भाव तो बचपन से ही था। मैंने नवोदय में अध्ययन करते हुए निबंध लेखन, काव्य लेखन, कहानी लेखन, व्याख्या लेखन, भावार्थ लेखन, सारांश लेखन वाद - विवाद, प्रश्नोत्तरी जैसी विविध साहित्यिक प्रतियोगिताओं में बढ़ - चढ़कर सहभाग लिया था और कई बार अव्वल स्थान भी पाया था लेकिन चूंकि मेरी पारिवारिक परिस्थिति मेरे जन्म से पूर्व से ही अति विषम थी, मेरे पिताजी 40 - 45 वर्षों से भयंकर मानसिक विक्षिप्तता के शिकार थे। नवोदय पूर्ण करते - करते मेरे सबसे बड़े भाई को वेरिकोज वेइंस की समस्या हो गई और दूसरे क्रम के भाई भी पिताजी की तरह ही हो गए थे और दादाजी भी हमेशा के लिए पलंग पर बैठ चुके थे। इसलिए नवोदय से आगे मेरा अध्ययन हो ही नहीं पाया। मैंने लगभग बारह साल में तैतीस जगह नौकरी करने का अजीब - सा रिकॉर्ड भी बनाया और अंततः रामनवमी 2016 को मैंने किन्नर रूप अपना लिया। उसी दौरान आबूरोड़ में रहते हुए मेरी मुलाकात मेरे आध्यात्मिक गुरू स्वर्गीय रामदासजी से हुई। मैं रोजाना ट्रेन से आते ही शाम चार से सात बजे तक उनके समक्ष आध्यात्मिक पुस्तकों का वाचन करती थी और वे मुझे उनका अर्थ समझाते थे। यह सिलसिला लगभग बारह महीने चला और और मैंने मेरी और मेरे गुरूजी की संयुक्त एक आध्यात्मिक पुस्तक लिखने का मन बनाया था लेकिन उस दौरान मेरे पिताजी गुजर गए। तब मैंने फिर से संन्यास से संन्यास ले लिया था और मैं उदयपुर में एक ऑनलाइन कंपनी में काम करने लगी थी। हालांकि वहां मेरी कोई विशेष आय नहीं हुई इसलिए लगभग छह महीने पश्चात ही वह कंपनी तो मुझे छोड़नी पड़ी लेकिन वहां मिले मार्गदर्शन व प्रोत्साहन संबंधी ज्ञान ने मुझे काफ़ी निडर और निर्भीक बना दिया। उसके पश्चात मैंने अत्यंत अल्प समय के लिए गांधीधाम में शिक्षण का कार्य करते हुए मेरी आध्यात्मिक और मार्गदर्शन व प्रोत्साहन संबंधी हस्तलिखित पांडुलिपि तैयार कर ली थी।

साल 2019 की दुर्गाष्टमी को, जब मेरा इकस्वा जन्म दिवस था, मैं मुंबई के उपनगर नालासोपारा में रहने लगी। तभी मेरा मोबाइल भी चोरी हो गया था, जैसे - तैसे छह महीने निकाले लेकिन कोरोना में घर बैठकर बेचैनी झेलने के कारण लॉकडाउन खुलते ही मैंने नया मोबाइल लिया और दिनभर बस्ती में पैदल घूमने के बावजूद सुबह - शाम लेखन करने लगी।

संयोग से उसी महीने मेरी मुलाकात मेरे एक साहित्यिक मित्र राजकुमार कांदु जी से हुई, उन्होंने मुझे सोशल मीडिया पर भी विभिन्न साहित्यिक समूहों की साहित्यिक लेखन प्रतियोगिताओं में सहभाग करने को प्रोत्साहित करते हुए कदम - कदम पर मेरा मार्गदर्शन भी किया।

कुछ समय पश्चात मैंने मेरे भाई को भी अपने पास बुला लिया लेकिन चूंकि लेखन हेतु एक एकांत व शांत माहौल आवश्यक होता है, इसलिए उस दरमियान मेरा लेखन बाधित रहा। सालभर पहले मैंने मेरे भाई को पूना में एक छोटी -सी दुकान करवा दी। भाई - भाभी के पूना जाने से मैं पुनः अकेली हो गई और मैंने इस अकेलेपन का फायदा उठाते हुए फिर से लेखन शुरू किया।

इस दौरान मैंने कई बार मेरी पुस्तक छपवाने का निर्णय किया लेकिन हर बार किसी न किसी बहाने वह टलता रहा और आखिर समय का पासा पलटते ही अब अगले ही महीने मेरे 35वें जन्मदिन, दुर्गाष्टमी तक दो पुस्तकें वर्तमान विडम्बनाएं एवं यथार्थ व मेरे सपनों का भारत भी आपके समक्ष होगी।

इस पुस्तक की प्रेरणा तो मुझे मेरे नवोदय चयन और परिचय समारोह से ही मिली थी। दरअसल मेरे नवोदय परिचय समारोह में मैंने अपना लक्ष्य नेता बनना बता दिया था, तब से मुझे मेरे सभी साथी और मेरे शिक्षक भी मुझे *नेता* कहकर ही पुकारते थे। आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए एक बार मुझे एक आशु भाषण प्रतियोगिता में विषय मिला था_ यदि मैं देश का प्रधानमंत्री होता। तब तो शायद मैं इस विषय पर दस - पंद्रह मिनट ही बोल पाई थी लेकिन इस विषय ने मेरे अंतर्मन में अपने देश के प्रति एक चिंतन उत्पन्न कर दिया था। मेरे सपनों का भारत ये उसी का प्रतिबिंब है।

मेरी इस पुस्तक में कुल बारह सपने यानि हर महीने का एक सपना है। साथ ही उन सपनों को पूर्ण करने हेतु नागरिकों व सरकार दोनों के लिए भी कई सुझाव, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन भी है। चूंकि मैं मेरी विषम परिस्थितियों में उलझकर किसी बड़े मुकाम तक नहीं पहुंच पाई इसलिए मैंने निश्चय किया कि मैं भले कुछ नहीं बन पाई लेकिन मैं मेरे जैसे लाखों - करोड़ों लोगों को मेरे सपनों की मंजिल तक पहुंचाऊं ताकि उनके रूप में मैं अपने आपको देख सकूं। मैंने यह पुस्तक लिखते समय खासकर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे अभ्यर्थियों की लेखन दक्षता संबंधी उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक को उपयोगी व सहायक बनाने का प्रयास किया है। 

आशा करती हूं कि मेरी यह पुस्तक हम सभी को एक आदर्श नागरिक बनने और अपने प्यारे भारतवर्ष के उज्ज्वल भविष्य के स्वर्णिम स्वप्न को साकार करने में एक नींव की ईंट साबित होगी और अपना राष्ट्र पुनः स्वाभिमानयुक्त, गौरवशाली, विश्वगुरू और सोने की चिड़िया वाला खिताब प्राप्त कर पाएगा।

मेरी पुस्तक के विचारों के निर्माण में मेरे प्रेरणापुंज समस्त समतावादी महापुरुषों विशेषकर करुणासागर बुद्ध, महावीर, सम्राट अशोक, कबीर, नानक, रविदासजी, रामदेवजी, आईमाताजी, सामाजिक चेतना के प्रवर्तक क्रांतिसूर्य ज्योतिबा फुले, क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले, बाबा साहेब, पेरियार, राष्ट्रवादी चेतना के ध्वजवाहक स्वामी विवेकानंदजी, टैगोरजी, दिनकरजी, साहित्यरत्न मुंशी प्रेमचंद, निरालाजी, क्रांति के उद्घोषक और आज़ादी के दीवाने चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, गांधीजी, आदर्श राजनीतिज्ञ राजीव गांधीजी, अटल बिहारीजी, मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम, आधुनिक दर्शनवाहक मुनि तरुणसागरजी, ओशो, मेरे आध्यात्मिक गुरूजी स्वर्गीय रामदासजी, माता - पिता, दादा - दादी, (शैक्षणिक शिक्षक, स्वतंत्र पत्रकारों, जिनकी सूची इस पुस्तक के परिशिष्ठ में संलग्न हैं), रिश्तेदारों, दोस्तों, सहयोगियों, आलोचकों परिचितों सभी का प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष सहयोग रहा है। उन सबका मैं हृदयतल की गहराई से आभार और अभिनंदन व्यक्त करती हूं।

पाठकों से अनुरोध है कि आप पुस्तक पढ़कर अपने अमूल्य सुझाव प्रेषित कर मेरा मार्गदर्शन करते रहे। आपके सुझावों को आगामी लेखन में समावेशित करने का यथासंभव प्रयास किया जाएगा।

आपके सुझावों की प्रतीक्षा में। आपकी अपनी भा भाव में अभाव न हो,पूर्णता का आभास हो। व  वक्त से परेशान न हो, संयम का साहस हो। ना ना ही कभी निराश हो, अपने ऊपर विश्वास हो। ऐसी सबकी *भावना* हो। प्रतिक्रिया  email :  bc7417111@gmail.com पर भेजें।


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